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ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय

ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय- शरीर के अन्दर विद्यमान
‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है। शारीरिक एवं
मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से
इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान
होता है। अत: बचने के कुछ सरल उपाय निम्रानुसार है-
1.ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने
की आवश्यकता है। अत: अन्नमय कोष की साधना करें। भोजन
पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए।
2. कामुक चिंतन आने पर निम्र उपाय करें-
* जिस प्रकार गन्ने का रस बाहर निकल जाने के पश्चात ‘छूछ’
कोई काम का नहीं रह जाता उसी प्रकार व्यक्ति के शरीर से
‘वीर्य’ के न रहने पर होता है, इस भाव का चिंतन करें।
* तत्काल निकट के देवालय में चले जायें एवं कुछ देर वहीं बैठे रहें।
* अच्छे साहित्य का अध्ययन करें। जैसे- ब्रह्मचर्य जीवन
की अनिवार्य आवश्यकता, मानवी विद्युत के चमत्कार, मन
की प्रचण्ड शक्ति, मन के हारे हार है मन के जीते जीत, हारिए
न हिम्मत आदि।
* अच्छे व्यक्ति के पास चले जायें।
* आपके घर रिश्तेदार में रहने वाली महिला को याद करें
कि मेरे घर में भी माता है, बहन है, बेटी है। अत: सामने
खड़ी लडक़ी/महिला भी उसी रूप में है।
* लड़कियों से आँख में आँख मिलाकर बाते न करें क्योंकि शरीर
में विद्यमान विद्युत शक्ति सबसे ज्यादा ‘आँखों’ के माध्यम से
बाहर निकलती है एवं प्रभावित करती है।
3. मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है-
* शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर
की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
* आँखो की रोशनी कम हो जाती है।
* शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है।
* जितना वीर्य बचाओगे उतना ही जीवन पाओगे।
* जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’
रहने के लिये ‘वीर्य’।
* ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है।
* अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता है।
* चिंतन विकृत हो जाता है।
* सात्विक भोजन, सकारात्मक चिंतन एवं सेवा कार्यों में
व्यस्त रहने से ‘मन’ नियंत्रित होता है। मन के नियंत्रण से
ब्रह्मचर्य जीवन साधने में ‘सरल’ हो जाता है।
ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय :- (उपाय बताने के पहले सबसे उनके
पिछले गलत आदतों, घटनाओं व समस्याओं को कागज में
लिखवा लें। पढक़र फाड़ दें।)
1. प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ।
2. तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक
शाकाहारी भोजन करें।
3. सभी नशीले पदार्थों से बचें।
4. गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें।
5. नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें।
6. रात्रि में दूध पीते हों तो सोने के 1-2 पहले पीएँ व
ठण्डा करके पीएँ ।
7. रात्रि शयन के पूर्व महापुरुषों के जीवन चरित्र
का स्वाध्याय करें।
8. मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य
से जोड़ रखें।
9. नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम
अनिवार्यत: करें-आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन
प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम।
10. एकान्त में लड़कियों से बातचीत मेल मिलाप से बचें।
काम तत्व के ज्ञान-विज्ञान को भी समझा जाए-
परमात्मा ने अपनी सारी शक्ति बीज रुप में मनुष्य
को दी गई है। वह शक्ति कुण्डलिनी कहलाती है। मूलधार चक्र
में कुण्डलिनी महाशक्ति अत्यन्त प्रचण्ड स्तर की क्षमताएँ
दबाए बैठी है। पुराणों में इसे महाकाली के नाम से
पुकारा गया है। मोटे शब्दों में इसे कामशक्ति कह सकते है।
कामशक्ति का अनुपयोग, सदुपयोग, दुरुपयोग किस प्रकार
मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है, उसे आध्यात्मिक
काम विज्ञान कहना चाहिए। इस शक्ति का बहुत सूझ-बूझ के
साथ प्रयोग किया जाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य का तत्व
ज्ञान है। बिजली की शक्ति से अगणित प्रयोजन पूरे किए
जाते हैं और लाभ उठाए जाते हैं, पर यह तभी होता है जब
उसका ठीक तरह प्रयोग करना आए, अन्यथा चूक करने वाले के
लिए तो वही बिजली प्राणघातक सिद्ध होती है।
नर और नारी के बीच पाए जाने वाले प्राण और रयि,
अग्नि और सोम, स्वाहा और स्वधा तत्वों का महत्व सामान्य
नहीं असामान्य है। सृजन और उद् भव की, उत्कर्ष और आह्लद
की असीम सम्भावनाएँ उसमे भरी पड़ी है। प्रजा उत्पादन
तेा उस मिलन का बहुत ही सूक्ष्म सा स्थूल और अति तुच्छ
परिणाम है। इस सृष्टि के मूल कारण और चेतना के आदि स्रोत
इन द्विधा संस्करण और संचरण का ठीक तरह मूल्यांकन
किया जाना चाहिए, और इस तथ्य पर ध्यान
दिया जाना चाहिए कि इनका सदुपयोग किस प्रकार विश्व
कल्याण की सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक हो सकता है, और
इनका दुरुपयोग मानव जाति के शारीरिक, मानसिक
स्वास्थ्य को किस प्रकार क्षीण विकृत करके विनाश के गर्त
में धकलने के लिए दुर्दांत दैत्य की तरह सर्वग्राही संकट उत्पन्न
कर सकता है।
अश्लील अवांछनीय और गोपनीय संयोग कर्म हो सकता है।
विकारोत्तेजक शैली में उसका वर्णन अहितकर हो सकता है।
पर सृष्टि संस्करण के आदि उद् गम प्रकृति पुरुष के संयोग से किस
प्रकार यह द्विधा काम कर रही है यह जानना तो अनुचित है
और न ही अनावश्यक। सच तो यह है कि इस
पञ्चाग्नि विद्या की अवहेलना-अवमानना से हमने
अपना ही अहित किया है। नर-नारी के बीच प्रकृति प्रदत्त
विधुतधारा किस सीमा तक किसी दिशा में कितनी और
कैसे श्रेयष्कर प्रतिक्रिया उत्नन्न करती है और
उनकी विकृति विनाश का निमित्त कैसे बनती है? इस
जानकारी को आध्यात्मिक काम विज्ञान कह सकते हैं।
काम शक्ति को गोपनीय तो माना गया है जिस प्रकार
धन कितना है? कहाँ है? आदि बातों को आमतौर से लोग
गोपनीय रखते हैं। उसकी अनावश्यक चर्चा करने से अहित होने
की आशंका रहती है। इसी प्रकार कामतत्व को गोपनीय
ही रखा गया है, पर इसकी महत्ता, सत्ता और पवित्रता से
कभी किसी ने इन्कार नहीं किया। यह घृणित नहीं पवित्रतम
है। यह हेय नहीं अभिवन्दनीय है। भारतीय आध्यात्म शास्त्र के
अन्तर्गत शिव और शक्ति का प्रत्यक्ष समन्वय जिस
पूजा प्रतीक में प्रस्तुत किया गया है उसमें उस रहस्य का सहज
ही रहस्योद् घाटन हो जाता है। शिव को पुरुष जननेन्द्रिय और
पार्वती को नारी का जननेन्द्रिय का स्वरूप दिया गया है।
उनका सम्मिलित विग्रह ही अपने देव मन्दिर मे स्थापित है।
यह अश्लील नहीं है। तत्वत: यह सृष्टि में संचरण और उल्लास
उत्पन्न करने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम, के संयोग से
उत्पन्न होने वाले, महानतम शक्ति प्रवाह की ओर संकेत है। इस
तत्वज्ञान को समझना न तो अश्लील है और न घृणित, वरन
शक्ति के उद् भव, विकास एवं विनियोग का उच्चस्तरीय
वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारभूत एक दिव्य संकेत है।
कामशक्ति स्वयं घृणित नहीं है। घृणित तो वह
विडम्बना है, जिसके द्वारा इतनी बहुमूल्य
ज्योतिधारा को शरीर को जर्नर और मन को अध:पतित करने
के लिए अविवेकपूर्ण प्रयुक्त किया जाता है।
सावित्री का कुण्डलिनी का प्राण काम पतित कैसे
हो सकता है? जो जितना उत्कृष्ट है विकृत होने पर वह
उतना ही निकृष्ट बन जाता है यह एक तथ्य है। काम तत्व के
बारे में भी यही सिद्धांत लागू होता है।
नारी को कामिनी और रमणी न बनाया जाए-
नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के
बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता।
दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के
लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास
और सामाजिक प्रगति तक समस्त
सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव
होता है। यह घनिष्ठता जितना प्रगाढ़ होगी, विकास और
उल्लास की प्रक्रिया उतनी ही सघन होती चली जाएगी।
अतिवाद का एक सिरा यह है कि नारी को कामिनी,
रमणी, वेश्या आदि बनाकर उसे आकर्षण का केन्द्र
बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा यह है कि उसे परदे,
घूंघट की कठोर जंजीरों में जकडक़र अपंग सदृश्य
बना दिया गया। उसे पददलित, पीडि़त, प्रबन्धित करने
की नृशंसता अपनाई गई। यह दोनों अतिवादी सिरे ऐसे हैं
जिनका समन्वय कर सकना कठिन है।
तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के मंच से एक और
बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की,
पाप-पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग
मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के
प्रतिपादन में न जाने क्या-क्या गढ़न्त गढक़र खड़ी कर दी गई।
लोग घर छोडक़र भागने में, स्वी बच्चे को बिलखता छोडक़र
भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े। इन
तीनों अतिवादों से बचकर मध्यम मार्ग अपनाते हुए हमें
अपनी शक्तियों का सुनियोजन परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु
करना चाहिए।
सन्दर्भ पुस्तकें :-
1. ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता।
2. आध्यात्मिक काम-विज्ञान।
3. ब्रह्मचर्य साधना (स्वामी शिवानन्द)

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Comments

  1. प्रणाम गुरु बहुत-बहुत धन्यवाद



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