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जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है।खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाडियों में चलता है।फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।शायद वैज्ञानिक अपनी ही बात को टाल रहें हैं।वैज्ञानिक स्वयं कहतें हैं कि वीर्य में हाई क्वालिटि प्रोटीन,कार्बोहाईड्रेट आदि होतें हैं। जो कि हमारे शरीर को बल प्रदान करते हैं। क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है?वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है। जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा।वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है।फिर उससे जो सुंदरता,शक्ति,रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है।
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ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय

ब्रह्मचर्य जीवन जीने के उपाय- शरीर के अन्दर विद्यमान ‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है। शारीरिक एवं मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान होता है। अत: बचने के कुछ सरल उपाय निम्रानुसार है- 1.ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है। अत: अन्नमय कोष की साधना करें। भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए। 2. कामुक चिंतन आने पर निम्र उपाय करें- * जिस प्रकार गन्ने का रस बाहर निकल जाने के पश्चात ‘छूछ’ कोई काम का नहीं रह जाता उसी प्रकार व्यक्ति के शरीर से ‘वीर्य’ के न रहने पर होता है, इस भाव का चिंतन करें। * तत्काल निकट के देवालय में चले जायें एवं कुछ देर वहीं बैठे रहें। * अच्छे साहित्य का अध्ययन करें। जैसे- ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता, मानवी विद्युत के चमत्कार, मन की प्रचण्ड शक्ति, मन के हारे हार है मन के जीते जीत, हारिए न हिम्मत आदि। * अच्छे व्यक्ति के पास चले जायें। * आपके घर रिश्तेदार में रहने वाली महिला को याद करें कि मेरे घर में भी माता है, बहन है, बेटी है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने में भोजन का महत्व है? प्रश्नकर्ता : उपवास किया हो, उस रात अलग ही तरह के आनंद का अनुभव होता है, उसका क्या कारण? दादाश्री : बाहर का सुख नहीं लेते तब अंदर का सुख उत्पन्न होता है। यह बाहरी सुख लेते हैं इसलिए अंदर का सुख बाहर प्रकट नहीं होता। हमने ऊणोदरी तप आखिर तक रखा था। दोनों वक्त ज़रूरत से कम ही खाना, सदा के लिए। ताकि भीतर निरंतर जागृति रहे। ऊणोदरी तप यानी क्या कि रोज़ाना चार रोटियाँ खाते हों तो दो खाना, वह ऊणोदरी तप कहलाता है। प्रश्नकर्ता : आहार से ज्ञान को कितनी बाधा होती है? दादाश्री : बहुत बाधा आती है। आहार बहुत बाधक है, क्योंकि यह आहार जो पेट में जाता है, उसका फिर मद होता है और सारा दिन फिर उसका नशा, कै़फ ही कै़फ चढ़ता रहता है। जिसे ब्रह्मचर्य का पालन करना है, उसे ख्याल रखना होगा कि कुछ प्रकार के आहार से उत्तेजना बढ़ जाती है। ऐसा आहार कम कर देना। चरबीवाला आहार जैसे कि घी-तेल (अधिक मात्रा में) मत लेना, दूध भी ज़रा कम मात्रा में लेना। दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी आराम से खाओ पर उस आहार का प्रमाण कम रखना। दबाकर मत खाना। अर्थात् आहार कितना लेना च

क्या है ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य क्या है? ब्रह्मचर्य क्या है? वह पुदगलसार है। हम जो आहार खाते-पीते हैं, उन सभी का सार क्या रहा? 'ब्रह्मचर्य'! वह सार यदि आपका चला गया तो आत्मा को जिसका आधार है, वह आधार ढीला हो जाएगा। इसलिए ब्रह्मचर्य मुख्य वस्तु है। एक ओर ज्ञान हों और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य हो तो सुख की सीमा ही नहीं रहेगी! फिर ऐसा 'चेन्ज' (परिवर्तन) हो जाए कि बात ही मत पूछिए! क्योंकि ब्रह्मचर्य तो पुदगलसार है। यह सब खाते हैं, पीते हैं, उसका क्या होता होगा पेट में? प्रश्नकर्ता : रक्त होता है। दादाश्री : उस रक्त का फिर क्या होता है? प्रश्नकर्ता : रक्त से वीर्य होता है। दादाश्री : ऐसा? वीर्य को समझता है? रक्त से वीर्य होगा, उस वीर्य का फिर क्या होगा? रक्त की सात धातुएँ कहते हैं न? उनमें एक से हड्डियाँ बनती है, एक से मांस बनता है, उनमें से फिर अंत में वीर्य बनता है। आखरी दशा वीर्य होती है। वीर्य पुदगलसार कहलाता है। दूध का सार घी कहलाता है, ऐसे ही यह जो आहार ग्रहण किया उसका सार वीर्य कहलाता है। लोकसार मोक्ष है और पुदगलसार वीर्य है। संसार की सारी चीज़ें अधोगामी हैं। वीर्य अकेला

ब्रह्मचर्य की परिभाषा

ब्रह्मचर्य की सही परिभाषा अखण्ड ज्योति May 1989 काम शक्ति का परिष्कार एवं ऊर्ध्वारोहण न केवल शारीरिक बलिष्ठता की दृष्टि से जरूरी, वरन् मानसिक प्रखरता के लिए भी अनिवार्य है। सृजनात्मकता एवं समस्त सफलताओं का मूलाधार भी यही हैं इसका आरीं इन्द्रिय संयम से होता है। किन्तु समापन ब्रह्म में एकाकार होकर होने के रूप में होता है। ब्रह्मचर्य की संयम-साधना दमन का नहीं, परिष्कार एवं ऊर्ध्वीकरण का मार्ग है। इसका सुंदरतम स्वरूप आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के रूप में दिखाई पड़ता है। इस तथ्य से अवगत होने पर जीवनी शक्ति का क्षरण रुकता है। ब्रह्मचर्य का महत्व न समझने वाले व्यक्ति काम शक्ति का दुरुपयोग भोग लिप्सा-यौन लिप्सा में करते हैं। फलतः इसके दिव्य अनुदानों का लाभ, जो श्रेष्ठ विचारों- उदात्तभाव-संवेदनाओं के रूप में मिलता हैं, उसे नहीं उठा पाते। अद्भुत सृजनशक्ति आधार क्षणिक इन्द्रिय सुखों के आवेश में नष्ट होकर मनुष्य की प्रगति को रोक देता है। इससे वह अपने पूर्व संचित तथा अब की उपार्जित क्षमताओं को भी गँवा बैठता है, साथ ही दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भुगतता है। काम

ब्रह्मचर्य से बल संचय

ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म बल का संचय अखण्ड ज्योति Feb 1969 सुख और श्रेय मन वह जीवन की दो महान उपलब्धियाँ मानी गई है। इनको पा लेना ही जीवन की सफलता है। सुख की परिधि का परिसर तक है। अर्थात् हम संसार के व्यवहार क्षेत्र में जो जीवन जीते है, उसका निर्विघ्न, स्निग्ध और सरलतापूर्वक चलते रहना ही साँसारिक सुख है। श्रेय आध्यात्मिक क्षेत्र की उपलब्धि है। ईश्वरीय बोध, आत्मा का ज्ञान और भव बन्धन से मुक्ति श्रेय कहा गया है। पार्थिव अथवा अपार्थिव किसी भी पुरुषार्थ के लिए शक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है। शक्ति हीनता क्या साधारण और क्या असाधारण दोनों प्रकार की प्रगतियों के लिए बाधा रूप है। शरीर अशक्त हो, मन निराश और कुण्ठित हो, बुद्धि की निर्णायक क्षमता शिथिल हो तो मनुष्य इच्छा रहते हुए भी किसी प्रकार का पुरुषार्थ नहीं कर सकता। संसार के सारे सुखों का मूलाधार साधनों को माना गया है। साधन यो ही अकस्मात् प्राप्त नहीं हो जाते। उनके लिये उपाय तथा परिश्रम करना होता है। रोटी, कपड़ा, आवास के साथ और भी अनेक प्रकार के साधन जीवन को सरलतापूर्वक चलाने के लिए आवश्यक होते है। इनके लिये कार रोजगार, म